जैन तीर्थंकर (Jain Tirthankar)

जैन तीर्थंकर

Jain Tirthankar

प्रिये दोस्तों ,
                 आईये आज हम तीर्थंकर कौन होते है इस विषय के बारे में चर्चा करेंगे /तीर्थंकर जैन साहित्य का एक मुख्य पारिभाषिक शब्द है ये शब्द कितना पुराना है इसके लिए इतिहास के फेर में पढ़ने की जरुरत नही है आजकल का विकसित से विकसित इतिहास भी इसका प्रारम्भ काल पा सकने में असमर्थ है और एक प्रकार से तो ये कहना चाहिए की ये शब्द इतिहास की उपलब्ध सामग्री से है ये बहुत दूर परे की चीज है /
                  जैन धर्म के साथ उक्त शब्द का अभिन्न सम्बद्ध है दोनों को दो अलग अलग स्थानो में विभक्त करना मनो दोनों के वास्तविक रूप को ही विकृत कर देना है जैनो की देखा देखी यह शब्द अन्य पन्थो में भी कुछ कुछ प्राचीन काल में व्यहावृत हुआ है परन्तु वह सब नही के बराबर है जैनो की तरह उनके यहा यह एक मात्र रूढ़ एवं उनका अपना निजी शब्द बनकर नही रह सका /
                    हा, तो जैन धर्म में यह शब्द किस अर्थ में व्यहावृत हुआ है और इसका क्या महत्व है ये देख लेने की बात है / तीर्थंकर का शाब्दिक अर्थ होता है - तीर्थ का करता अर्थात बनाने वाला तीर्थ शब्द का जैन परिभाशा के अनुसार मुख्य अर्थ है - धर्म / संसार समुद्र से आत्मा को तिरने वाला एक मात्र अहिंसा एवं सत्य आदि धर्म ही है अतः धर्म को तीर्थ कहना , शब्द शास्त्र की दृस्टि से उपुक्त ही है तीर्थंकर अपने समय में संसार सागर से पर करने वाले धर्म तीर्थ की स्थापना करते है अतः वे तीर्थंकर कहलाते है / धर्म के आचरण करने वाले साधु ,साध्वी ,श्रावक -गृहस्थ  पुरुष और श्राविका -गृहस्थ स्त्रीरूप चतुर्विद संघ को भी गौण दृस्टि से तीर्थ कहा जाता है अतः चतुर्विद धर्म -संघ की स्थापना करने वाले महापुरुषों को भी तीर्थंकर कहते है /
                    जैन धर्म की मान्यता है जब जब संसार में अत्याचार का राज्य होता है प्रजा दुराचारों से उत्पीड़ित हो जाती है लोगो में धार्मिक भावना क्षीण होकर पाप भावना जोर पकड़ लेती है तब तब संसार में तीर्थंकरो का अवतरण होता है और वे संसार की मोह माया का परित्याग कर , त्याग और वैराग्य की अखंड भावना में रमकर, अनेकानेक भयंकर कष्ट उठाकर, पहले स्वयं सत्य की पूर्णज्योति का दर्शन करते है- जैन परिभाषा के अनुसार केवल ज्ञान प्राप्त करते है और फिर मानव संसार को धर्मोपदेश देकर उसे असत्य प्रपंच के चंगुल से छुड़ाते है ,सत्य के पद पर लगाते है और संसार में पूर्ण सुख शांति का आध्यात्मिक साम्राज्य स्थापित करते है /
                  तीर्थंकरो के शासन काल में प्रायः प्रत्येक भव्य स्त्री पुरुष अपने आप को पहचान लेता है और स्वयं  सुखपूर्ण जीना दुसरो को सुखपूर्ण जीने देने के लिए अपने सुखो की कुछ भी परवाह न करके अधिक से अधिक सहायता देना- उक्त महान सिद्धांत को अपने जीवन में उतार लेता है अस्तु ,तीर्थंकर वह है जो संसार को सच्चे धर्म का उपदेश देता है ,आध्यात्मिक तथा नैतिक पतन की और ले जाने वाले पापाचारो  से बचाता है संसार को भौतिक सुखो की लालसा से हटकर आध्यात्मिक सुखो का प्रेमी बनता है और बनता है नरक सवरूप उन्मुक्त एवं विक्षिप्त संसार को सत्यम ,शिवम ,सुंदरम का स्वर्ग /
                 तीर्थंकरो के लिए लोक भाषा में यदि कुछ कहना चाहे, तो उन्हें अध्यात्ममार्ग के सर्वोत्कृष्ट नेता कह सकते है/ तीर्थंकरो की आत्मा पूर्ण विकसित होती है, फलतः उनमें अनंत  आध्यात्मिक शक्तियाँ पूर्णतया प्रकट हो जाती है उन्हें न किसी से राग होता है और न ही किसी से द्वेष /समस्त संसार को वे मित्रता की दृस्टि से देखते है ,और वनस्पति आदि स्थावर जीवो से लेकर समस्त प्राणी मात्र के प्रति प्रेम और करुणा भाव रखते है यही कारण है की उनके समवशरण में सर्प और नकुल ,चूहा और बिल्ली ,मृग और सिंह आदि जन्म जात शत्रु प्राणी भी द्वेष भाव को छोड़कर बड़े प्रेम व् भातृभाव के साथ पूर्ण शांति अवस्था में रहते है उनको ज्ञान शक्ति अनंत होती है विश्व का कोई भी रहस्य ऐसा नहीं रहता जो की उनके ज्ञान में न देखा जाता हो उनका जीवन अठारह दोषो से मुक्त ,विशुद्ध एवं पवित्र होता है /                                                                                                               जैन धर्म में मानव जीवन की दुर्बलता के अर्थात मनुष्य की अपूर्णता के सूचक निम्नोक्त अट्ठारह दोष मने गए है
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१ मिथ्यात्व =असत्य विश्वास /
२ अज्ञान /
३ क्रोध  /
४ मान  /
५ माया =कपट /
६ लोभ  /
७ रति =मन पसंद वास्तु मिलने पर हर्ष /
८ अरति=अमोगय वास्तु के मिलने पर खेद /
९ निद्रा  /
१० शोक /
११ अलोक =झूठ /
१२ चोरी /
१३ मत्सर =डाह /
१४ भय /
१५ हिंसा /
१६ राग =आसक्ति /
१७ क्रीड़ा =खेल तमाशा व् नाच रंग /
१८ हास्य =हसी मजाक /
      जब तक मनुष्य इन अठरह दोषो से सर्वथा मुक्त नहीं होता ,तब तक वह आध्यात्मिक शुद्धि के पूर्ण विकास के पद पर नहीं पहुंच सकता /ज्यो ही वह अट्ठारह दोषो से मुक्त होता है त्यों ही आत्म शुद्धि के महान और ऊँचे शिखर पर पहुंच जाता है तथा कवलज्ञान एवं केवल दर्शन के द्वारा समस्त विश्व का ज्ञाता द्रष्टा बन जाता है तीर्थंकर भगवन उक्त अट्ठारह दोषो से सर्वथा रहित होते है एक भी दोष उनके जीवन में नहीं रहता /

 तीर्थंकर ईश्वरीय अवतार नहीं है 

Jain Tirthankar

जैन तीर्थंकरो के सम्बन्ध में कुछ लोग बहुत भ्रांत धारणाय रखते है उनका कहना है कि-जैन अपने तीर्थंकरो को ईश्वर का अवतार मानते है हम उन बंधुओ से कहेंगे कि वह भूल में है जैन धर्म ईश्वर वादी नहीं है वह संसार के करता, धर्ता और सहर्ता किसी एक ईश्वर को नहीं मानते उनकी यह मान्यता नहीं है कि हज़ारो भुजाओ वाला ,दुष्टो का नाश करने वाला ,भक्तो का पालन करने वाला , सर्वथा परोक्ष में कोई एक ईश्वर है ;और वह यथा समय संसार पर दया भाव लाकर गोलोक ,सत्यलोक या बैकुंठ धाम आदि से दौड़कर संसार में आता है ,किसी के यहाँ जन्म लेता है ,और फिर लीला दिखा कर वापस लौट जाता है अथवा जहा कही भी है ,वाही से बैठा हुआ संसार घटिका कि सुई फेर देता है और मनचाहा बजा देता है /
                                जैन धर्म में मनुष्य से बढ़कर और कोई दूसरा महान प्राणी नहीं है जैन शास्त्रो में आप जहा कही भी देखोगे मनुष्य को सम्बोधन करते हुए 'देवंपिय ' शब्द का प्रयोग पायंगे उक्त सम्बोधन का यहभावार्थ है कि 'देव संसार ' भी मनुष्य के आगे तुछ है वह भी मनुष्य के प्रति प्रेम ,श्रद्धा एवं आदर का भाव रखता है मनुष्य असीम तथा अनंत शक्तियों का भंडार है वह दूसरे शब्दों में स्यंसिद्ध ईश्वर है ,परन्तु संसार कि मोह माया के कारण कर्म माँ से आच्छादित है ,अत बदलो से ढका हुआ सूरज है जो सम्यक रूप से अपना प्रकाश प्रसारित नहीं कर सकता /
                               परन्तु ज्यो ही वह होश में आता है अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेता है दुर्गुणों को त्यागकर सदगुनो को अपनाता है तो धीरे धीरे निर्मल ,शुद्ध एवं स्वच्छ होता चला जाता है एक दिन जगमगाती हुई अनंत शक्तियों का प्रकाश प्राप्त कर मानवता के पूर्ण विकास की कोटि पर पहुंच जाता है और सर्वज्ञ ,सर्वदर्शी ,ईश्वर ,परमात्मा ,शुद्ध ,बुद्ध बन जाता है तदन्तर जीवन्मुक्त दशा में संसार को सत्य का प्रकाश देता है और अंत में निर्वाण प्राप्त कर मोक्ष दशा में सदा काल के लिए अजर अमर अविनाशी -जैन परिभाषा में सिद्ध हो जाता है /
तीर्थंकर भी मनुष्य ही होते है वे कोई अध्भुत दैवीय सृस्टि के प्राणी ,ईश्वर ,अवतार या ईश्वर के अंश जैसे कुछ नहीं होते एक दिन हमारी तुम्हारी तरह ही वासनाओ के गुलाम थे ,पाप मल से लिप्त थे ,संसार के दुःख ,शोक ,अधिव्याधि से संत्रस्त थे / सत्य क्या है ,असत्य क्या है -यह उन्हें कुछ भी पता नहीं था ! इन्द्रिय सुख ही एक मात्र सुख था उसी की कल्पना के पीछे अनादि काल से नाना प्रकार के कलेश उठाते ,जन्म मरण के झंझावात में चक्कर खाते घूम रहे थे परन्तु अपूर्व पुण्योदय से सत्पुरुषों का संघ मिला ,चैतन्य और जड़ का भेद समझा ,भौतिक एवं आध्यात्मिक सुख का महान अंतर ध्यान में आया ,फलतः संसार की वासनाओ से मुह मोड़ कर सत्य पथ के पथिक बन गए/ आत्म सयमकी साधना में पहले के अनेक जन्मो से ही आगे बढ़ते गए और अंत में एक दिन वह आया की आत्म स्वरूप की पूर्ण उपलब्धि उन्हें हो गयी ज्ञान की ज्योति जगमगाई और वे तीर्थंकर के रूप में प्रकट हुए / उस जन्म में भी यह नहीं की किसी राजा महाराजा के यहाँ जन्म लिया और वयस्क होने पर भोग विलास करते हुए ही तीर्थंकर हो गए /उन्हें भी राज्य वैभव छोड़ना होता है पूर्ण अहिंसा ,पूर्ण सत्य ,पूर्ण अस्तेय ,पूर्ण ब्रम्चर्य और पूर्ण अपरिग्रह की साधना में निरंतर जूता रहना पड़ता है पूर्ण विरक्त मुनि  बनकर एकांत निर्जन स्थानो में आत्म मनन करना होता है अनेक प्रकार के अधिभौतिक ,आदिदैविक एवम आध्यात्मिक दुखो को पूर्ण शांति के साथ सहन कर प्राणापहरी शत्रु पर भी अन्तर्हृदय से दयामृत का शीतल झरना बाहना होता है तब कही पाप मल से मुक्त होने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति द्वारा तीर्थंकर पद प्राप्त होता है /

तीर्थंकर का पुनरागमन नहीं


बहुत से स्थानो पर अजैन बंधुओ द्वारा  यह शंका प्रकट की जाती है की ''जैनो में चौबीस ईश्वर या देव है ,जो प्रत्येक काल या चक्र में बरी बरी से जन्म लेते है और धर्मोपदेश देकर पुनः अंत -ध्वनि हो जाते है ''/ इस शंका का समाधान कुछ तो पहले ही कर चुके है फिर भी स्पष्ट शब्दों में बता देते है की जैन धर्म में ऐसा अवतारवाद नहीं माना गया है /प्रथम तो अवतार शब्द ही जैन परिभाषा का नहीं है यह वैष्णव परम्परा का शब्द है जो उनकी मान्यता के अनुसार विष्णु भगवन की बार बार जन्म लेने के रूप में राम ,कृष्ण आदि सत्पुरुषों के लिए आया है आगे चलकर एक मात्र महापुरुष का धोतक रह गया और इसी कारन आजकल के जैन बंधू भी किसी के पूछने पर झटपट अपने यहाँ चौबीस अवतार बता देते है और तीर्थंकरो को अवतार कह देते है ,परन्तु  किसी एक व्यक्ति के द्वारा बार बार जन्म लेने की भरती भी चली आई है ,जिसको लेकर अबोध जनता में यह विश्वास फैल गया है की चौबीस तीर्थंकरो की मूल संख्या एक शक्ति विशेष के रूप में निश्चित है और वाही महाशक्ति प्रत्येक कालचक्र में बार बार जन्म लेती  है ,संसार का उद्धार करती है और फिर अपने स्थान में जाकर विराजमान हो जाती है /
             जैन धर्म में मोक्ष प्राप्त करने के बाद संसार में पुनरागमन नहीं माना जाता  विश्व का प्रत्येक नियम कार्य कारण के रूप में सम्बन्ध है बिना कारण के कोई कार्य नहीं हो सकता/'' बीज होगा तभी अंकुर हो सकता है '' ''धागा होगा तभी वस्त्र बन सकता है ''/आवागमन तथा जन्म मरण पाने का कारण कर्म है ,और वह मोक्ष अवस्था में नहीं रहता अतः कोई भी विचारशील सज्जन समझ सकता है की - जो आत्मा कर्म -मल से मुक्त होकर मोक्ष पा चुका,वह फिर संसार में कैसे आ सकता है बीज तभी तक उत्पन्न हो सकता है जब तक वह भुना नहीं है ,निर्जीव नहीं हुआ /जब बीज एक बार भुन गया तो फिर कभी भी उसमे अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता /जन्म मरण के अंकुर का बीज कर्म है जब उसे धर्म क्रियाओ से जाला दिया ,तो फिर जन्म मरण का अंकुर कैसे फूटेगा ?आचार्य  उमास्वामी ने'' तत्वार्थ भस्य '' में इस सम्बन्ध में क्या ही अच्छा कहा है -
                                                       दग्धे बीजे यथात्यन्तं
                                                                         प्रादुर्भवति णांकुरामः /
                                                     कर्म बीजे तथा दग्धे
                                                                        न रोहति भवांकुरम //
बहुत दूर चला आया हूँ ,परन्तु विषय को स्पष्ट करने के लिए इतना विस्तार के साथ लिखना आवश्यक भी था अब आप अच्छी तरह से समझ गए की जैन तीर्थंकर मुक्त हो जाते है वे संसार में दुबारा नहीं आते /अस्तु ,प्रत्येक काल चक्र में जो चौबीस तीर्थंकर होते है ,वे पृथक पृथक आत्मा होते है /

 तीर्थंकरो व् अन्य मुक्तात्माओ में अंतर


अब एक और गंभीर प्रष्न है ,जो प्रायः हमारे सामने आया करता है /कुछ लोग कहते है -''जैन अपने चौबीस तीर्थंकरो का ही मुक्त होना मानते है ,और कोई इनके यहाँ मुक्त नहीं होते ''/यह बिलकुल गलत धरना है इसमें जरा भी सत्य नहीं है /तीर्थंकरो के अतिरिक्त अन्य आत्मय भी मुक्त हो सकती है/ जैन धर्म किसी एक व्यक्ति ,जाति या समाज के अधिकार में ही मुक्ति का ठेका नहीं रखता /उसकी उदार दृस्टि में तो हर कोई मनुष्य ,चाहे वो किसी भी देश ,जाति ,समाज या धर्म का हो ,जो अपने आप को बुराइयो से बचाता हो ,आत्मा को अहिंसा ,क्षमा ,सत्य ,शील ,सयम आदि सदगुनो से पवित्र बनता है वह अनंत ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करके मुक्त हो जाता है /
             तीर्थंकरो की और अन्य मुक्त होने वाली महान आत्माओ की आंतरिक शक्तियों में कोई भेद नहीं होता / केवल ज्ञान, केवल दर्शन आदि आत्मिक शक्तिया सभी मुक्त होने वालो में सामान होती है / जो कुछ भेद है वह धर्म प्रचार की मौलिक दृष्टि का और अन्य योग सम्बन्धी अदभुत शक्तियों का है / तीर्थंकर महान धर्म प्रचारक होते है, वे अपने अद्वितीय तेजोबल से अज्ञान एवं अंधविश्वासों का अंधकार छिन्न भिन्न कर देते है, और एक प्रकार से जिन शिन सड़े गले मानव  संसार का कायाकल्प कर डालते है / उनकी योग्य सम्बन्धी शक्तियों अर्थात सिद्धियां भी बड़ी ही अदभुत होती है / उनका सरीर पूर्ण स्वस्थ्य और निर्मल रहता है मुख के श्वास उछस्वास सुगन्धित होते है वैरानु बध्य विरोधी प्राणी भी उपदेश श्रमण कर शांत हो जाते है उनकी उपस्थिति में दुर्भिक्ष एवं अतिवृष्टि आदि उपद्रव भी नही होते है, महामारी भी नही होती / उनके प्रभाव से रोगग्रस्त प्राणियों के रोग भी दूर हो जाते है उनकी भाषा में वह चमत्कार होता है की - क्या आर्य और अनार्य मनुष्य, क्या पशु पक्षी सभी उनकी दिव्य वाणी के भावो का अर्थ समझ लेते है इस प्रकार अनेक लोकोपकारी सिद्धियों के स्वामी तीर्थंकर होते है,जबकि दूसरे मुक्त होने वाली आत्मा ऐसे नहीं होते अर्थात न तो वह तीर्थंकर जैसे महान धर्म प्रचारक ही होते है ,न इतनी अलोकिक योग सिद्धियों के स्वामी ही /साधारण मुक्त जीव अपना अंतिम विकास -लक्ष्य अवश्य प्राप्त कर लेते है ,परन्तु जनता पर अपना चिस्थायी अवं आध्यात्मिक प्रभुत्व नहीं जमा पते /यही एक विशेषता है , जो तीर्थंकर और अन्य मुक्त आत्माओ में भेद करती है /
        प्रस्तुत विषय के साथ लगती हुई यह बात भी स्पस्ट कर देते है की यह भेद , मात्र जीवन्मुक्त दशा में अर्थात देहधारी अवथा में ही है /मोक्ष प्राप्ति के बाद कोई भी भेद भाव नहीं रहता वहां तीर्थंकर और अन्य मुक्त आत्मय ,सभी एक ही रूप में रहते है क्योकि जब तक जीवात्मा जीवन्मुक्त दशा में रहता है ,तब तक तो प्रारब्ध कर्म का भोग बाकि रहता है अतः उसके कारन जीवन में भेद रहता है परन्तु देह मुक्त दशा होने पर मोक्ष में तो कोई भी कर्म अवशिस्ट नहीं रहता ,फलतः कर्म जन्य ,भेद भाव भी नहीं रहता /अतः अब हमने आपको इस से सम्भंदित सभी जानकारी उपलब्ध करा दी है और अगर और भी जानना चाहते है तो आप जरूर इस पेज को पढ़िए और जानकारी प्राप्त करिये हम आपको और भी बातो से अवगत कराते रहेंगे और भी दिलचस्प  बाते बताउंगी /
                                                                                                                                                                धन्यवाद 
जय जिनेद्र 
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